Tuesday 21 August 2018

हर खुशी है लोगों के दामन में ,

हर खुशी है लोगों के दामन में


हर खुशी है लोगों के दामन में ,
पर एक हंसी के लिए वक़्त नहीं .
दिन रात दौड़ती दुनिया में ,
ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं .
माँ की लोरी का एहसास तो है ,
पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं .
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके ,
अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं .
सारे नाम मोबाइल में हैं ,
पर दोस्ती के लए वक़्त नहीं .
गैरों की क्या बात करें ,
जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं .
आँखों में है नींद बड़ी ,
पर सोने का वक़्त नहीं .
दिल है घमों से भरा हुआ ,
पर रोने का भी वक़्त नहीं .
पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े ,
की थकने का भी वक़्त नहीं .
पराये एहसासों की क्या कद्र करें ,
जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नहीं .
तू ही बता इ ज़िन्दगी ,
इस ज़िन्दगी का क्या होगा ,
की हर पल मरने वालों को ,
जीने के लिए भी वक़्त नहीं ………

अभिसार गा रहा हूँ

अभिसार गा रहा हूँ

ले जाएगा कहाँ तू
मुझसे मुझे चुरा के!

पत्थर के इस नगर में
करबद्ध प्रार्थनाएँ,
इस द्वार सर झुकाएँ,
उस द्वार तड़फड़ाएँ,;
फिर भी न टूटती हैं,
फिर भी न टूटनी है,
चिर मौन की कथाएँ,
चिर मौन की प्रथाएँ,

क्यों टेरता है रह-रह
मुझे बाँसुरी बना के!

उजड़े चतुष्पथों पर
बिखरे हुए मुखौटे,
जो खो गए स्वयं से
औ’ आज तक न लौटे,
उनमें ही मैं भी अपनी
पहचान पा रहा हूँ,
संन्यास के स्वरों में
अभिसार गा रहा हूँ,

क्यों रख रहा है सपने
मेरी आँख में सजा के!

Sunday 19 August 2018

ख्याली जलेबी

एक बार एक बुढ़िया किसी गाड़ी से टकरा गई। वह बेहोश होकर गिर पड़ी। लोगों की भीड़ ने उसे घेर लिया। कोई बेहोश बुढ़िया को हवा करने लगा तो कोई सिर सहलाने लगा।
गाड़ीवाला टक्कर मारते ही भाग गया था। वहीं शेखचिल्ली जनाब भी खड़े थे। एक आदमी बोला, ‘जल्दी से बुढ़िया को अस्पताल ले चलो।' दूसरे ने कहा, ‘हाँ', ताँगा लाओ और इसे अस्पताल पहुँचाओ।'
‘हमें इसे यहीं पर होश में लाना चाहिए।'
'भई, कोई तो पानी ले लाओ।' तीसरा बोला।
‘पानी के छींटे देने पर यह होश में आ जाएगी।'
'हाँ, हमें इसकी जिंदगी बचानी चाहिए।'
'लेकिन यह तो होश में नहीं आ रही। इसे अस्पताल ही ले चलो। वहीं होश में आएगी।'
वहीं खड़ा शेखचिल्ली बोला, ‘इसे होश में लाने का तरीका तो मैं बता सकता हूँ।'
‘बताओ भाई?' कई लोग एक साथ बोले।
‘इसके लिए गर्म-गर्म जलेबियाँ लाओ। जलेबियों की खुशबू इसे सुँघाओ और फिर इसके मुँह में डाल दो। जलेबियाँ इसे बड़ा फायदा करेंगी।' शेखचिल्ली ने बताया।
लोगों को शेखचिल्ली की बात मूर्खतापूर्ण लगी और लोगों ने उसे अनसुना कर दिया।
शेखचिल्ली की बात बुढ़िया के कानों में पड़ चुकी थी।
बुढ़िया बेहोशी का बहाना किए पड़ी थी। शेखचिल्ली की बात को अनसुना होते देख बुढ़िया बोल उठी, ‘अरे भाइयों, इसकी भी तो सुनो! देखो यह लड़का क्या कह रहा है।'
लोग चौंक पड़े। उन्होंने बुढ़िया को बुरा-भला कहा और चल दिए। बहानेबाज़ बुढ़िया भी चुपचाप उठकर जाने को मजबूर हो गई।

इतना-सा ही है संसार।

सबसे पहले मेरे घर का
अंडे जैसा था आकार 
तब मैं यही समझती थी बस
इतना-साही है संसार। 
फिर मेरा घर बना घोंसला
सूखे तिनकों से तैयार
तब मैं यही समझती थी बस
इतना-सा ही है संसार।

अगर न होता चाँद

अगर न होता चाँद, रात में
हमको दिशा दिखाता कौन?
अगर न होता सूरज, दिन को
सोने-सा चमकाता कौन?
अगर न होतीं निर्मल नदियाँ 
जग की प्यास बुझाता कौन?
अगर ना होते पर्वत, मीठे 
झरने भला बहाता कौन?
अगर न होते पेड़ भला फिर
हरियाली फैलाता कौन?
अगर न होते फूल बताओ
खिल-खिलकर मुसकाता कौन? 
अगर न होते बादल, नभ में
इंद्रधनुष रच पाता कौन?
अगर न होते हम तो बोलो
ये सब प्रश्न उठाता कौन?

हीरे का हीरा

आज सवेरे ही से गुलाबदेई काम में लगी हुई है। उसने अपने मिट्टी के घर के आँगन को गोबर से लीपा है, उस पर पीसे हुए चावल से मंडन माँडे हैं। घर की देहली पर उसी चावल के आटे से लीकें खैंची हैं और उन पर अक्षत और बिल्‍वपत्र रक्‍खे हैं। दूब की नौ डालियाँ चुन कर उनने लाल डोरा बाँध कर उसकी कुलदेवी बनाई है और हर एक पत्ते के दूने में चावल भर कर उसे अंदर के घर में, भींत के सहारे एक लकड़ी के देहरे में रक्‍खा है। कल पड़ोसी से माँग कर गुलाबी रंग लाई थी उससे रंगी हुई चादर बिचारी को आज नसीब हुई है। लठिया टेकती हुई बुढ़ि‍या माता की आँखें यदि तीन वर्ष की कंगाली और पुत्र वियोग से और डेढ़ वर्ष की बीमारी की दुखिया के कुछ आँखें और उनमें ज्‍योति बाकी रही हो तो - दरवाजे पर लगी हुई हैं। तीन वर्ष के पतिवियोग और दारिद्र्य की प्रबल छाया से रात-दिन के रोने से पथराई और सफेद हुई गुलाबदेई की आँखों पर आज फिर यौवन की ज्‍योति और हर्ष के लाल डोरे आ गए हैं। और सात वर्ष का बालक हीरा, जिसका एकमात्र वस्‍त्र कुरता खार से धो कर कल ही उजाला कर दिया गया है, कल ही से पड़ोसियों से कहता फिर रहा है कि मेरा चाचा आवेगा।
बाहर खेतों के पास लकड़ी की धमाधम सुनाई पड़ने लगी। जान पड़ता है कि कोई लँगड़ा आदमी चला आ रहा है जिसके एक लकड़ी की टाँग है। दस महीने पहिले एक चिट्ठी आई थी जिसे पास के गाँव के पटवारी ने पढ़ कर गुलाबदेई और उसकी सास को सुनाया था। उसें लिखा था कि लहनासिंह की टाँग चीन की लड़ाई में घायल हो गई है और हांगकांग के अस्पताल में उसकी टाँग काट दी गई है। माता के वात्‍सल्‍यमय और पत्‍नी के प्रेममय हृदय पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि बेचारियों ने चार दिन रोटी नहीं खाई थी। तो भी - अपने ऊपर सत्‍य आपत्ति आती हुई और आई हुई जान कर भी हम लोग कैसे आँखें मीच लेते हैं और आशा की कच्‍ची जाली में अपने को छिपा कर कवच से ढका हुआ समझते हैं! - वे कभी-कभी आशा किया करती थीं कि दोनों पैर सही सलामत ले कर लहनासिंह घर आ जाय तो कैसा! और माता अपनी बीमारी से उठते ही पीपल के नीचे के नाग के यहाँ पंचपकवान चढ़ाने गई थी कि 'नाग बाबा! मेरा बेटा दोनों पैरों चलता हुआ राजी-खुशी मेरे पास आवे।' उसी दिन लौटते हुए उसे एक सफेद नाग भी दीखा था जिससे उसे आशा हुई थी कि मेरी प्रार्थना सुन ली गई। पहले पहले तो सुखदेई को ज्‍वर की बेचैनी में पति की टाँग - कभी दहनी और कभी बाईं - किसी दिन कमर के पास से और किसी दिन पिंडली के पास से और फिर कभी टखने के पास से कटी हुई दिखाई देती परंतु फिर जब उसे साधारण स्‍वप्‍न आने लगे तो वह अपने पति को दोनों जाँघों पर खड़ा देखने लगी। उसे यह न जान पड़ा कि मेरे स्‍वस्‍थ मस्तिष्‍क की स्‍वस्‍थ स्‍मृति को अपने पति का वही रूप याद है जो सदा देखा है, परंतु वह समझी की किसी करामात से दोनों पैर चंगे हो गए हैं।
किंतु अब उनकी अविचारित रमणीय कल्‍पनाओं के बादलों को मिटा देने वाला वह भयंकर सत्‍य लकड़ी का शब्‍द आने लगा जिसने उनके हृदय को दहला दिया। लकड़ी की टाँग की प्रत्‍येक खटखट मानो उनकी छाती पर हो रही थी और ज्‍यों-ज्‍यों वह आहट पास आती जा रही थी त्‍यों-त्‍यों उसी प्रेमपात्र के मिलने के लिए उन्‍हें अनिच्‍छा और डर मालूम होते जाते थे कि जिसकी प्रतीक्षा में उसने तीन वर्ष कौए उड़ाते और पल-पल गिनते काटे थे प्रत्‍युत वे अपने हृदय के किसी अंदरी कोने में यह भी इच्‍छा करने लगीं कि जितने पल विलंब से उससे मिलें उतना ही अच्‍छा, और मन की भित्ति पर वे दो जाँघों वाले लहनासिंह की आदर्श मूर्ति को चित्रित करने लगी और उस अब फिर कभी न दिख सकने वाले दुर्लभ चित्र में इतनी लीन हो गई कि एक टाँग वाला सच्‍चा जीता जागता लहनासिंह आँगन में आ कर खड़ा हो गया और उसके इस हँसते हुए वाक्‍यों से उनकी वह व्‍यामोहनिद्रा खुली कि -

'अम्‍मा! क्‍या अंबाले की छावनी से मैंने जो चिट्ठी लिखवाई थी वह नहीं पहुँची?' माता ने झटपट दिया जगाया और सुखदेई मुँह पर घूँघट ले कर कलश ले कर अंदर के घर की दहनी द्वारसाख पर खड़ी हो गई। लहनासिंह ने भीतर जा कर देहरे के सामने सिर नवाया और अपनी पीठ पर की गठरी एक कोने में रख दी। उसने माता के पैर हाथों से छू कर हाथ सिर को लगाया और माता ने उसके सिर को अपनी छाती के पास ले कर उस मुख को आँसुओं की वर्षा से धो दिया जिस पर बाक्‍तरों की गोलियों की वर्षा के चिह्र कम से कम तीन जगह स्‍पष्‍ट दिख रहे थे।

अब माता उसको देख सकी। चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी और उसके बीच-बीच में तीन घावों के खड्डे थे। बालकपन में जहाँ सूर्य, चंद्र, मंगल आदि ग्रहों की कुदृष्टि को बचानेवाला तांबे चाँदी की पतड़ि‍यों और मूँगे आदि का कठला था वहाँ अब लाल फीते से चार चाँदी के गोल-गोल तमगे लटक रहे थे। और जिन टाँगों ने बालकपन में माता की रजाई को पचास-पचास दफा उघाड़ दिया उनमें से एक की जगह चमढ़े के तसमों से बँधा हुआ डंडा था। धूप से स्‍याह पड़े हुए और मेहनत से कुम्‍हलाए हुए मुख पर और महीनों तक खटिया सेने की थकावट से पिलाई हुई आँखों पर भी एक प्रकार की, एक तरह के स्‍वावलंबन की ज्‍योति थी जो अपने पिता, पितामह के घर और उनके पितामहों के गाँव को फिर देख कर खिलने लगती थी।
माता रुँधे हुए गले से न कुछ कह सकी और न कुछ पूछ सकी। चुपचाप उठ कर कुछ सोच-समझ कर बाहर चली गई। गुलाबदेई जिसके सारे अंग में बिजली की धाराएँ दौड़ रही थीं और जिसके नेत्र पलकों को धकेल देते थे इस बात की प्र‍तीक्षा न कर सकी कि पति की खुली हुई बाँहें उसे समेट कर प्राणनाथ के हृदय से लगा लें किंतु उसके पहले ही उसका सिर जो विषाद के अंत और नवसुख के आरंभ से चकरा गया था पति की छाती पर गिर गया और हिंदुस्‍तान की स्त्रियों के एकमात्र हाव-भाव - अश्रु - के द्वारा उनकी तीन वर्ष की कैद हुई मनोवेदना बहने लगी।
वह रोती गई और रोती गई। क्‍या यह आश्‍चर्य की बात है? जहाँ की स्त्रियाँ पत्र लिखना-पढ़ना नहीं जानतीं और शुद्ध भाषा में अपने भाव नहीं प्रकाश कर सकतीं और जहाँ उन्‍हें पति से बात करने का समय भी चोरी से ही मिलता है वहाँ नित्‍य अविनाशी प्रेम का प्रवाह क्‍यों न‍हीं अश्रुओं की धारा की भाषा में... ( गुलेरी जी इस कहानी को यहीं तक लिख पाए थे। आगे की कहानी कथाकार डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने पूरी की है) ...उमड़ेगा। प्रेम का अमर नाम आनंद है। इसकी बेल जन्‍म-जन्‍मांतर तक चलती है। गुलाबदेई को तीन वर्ष के बाद पति-स्‍पर्श का मिला था। पहले तो वह लाजवंती-सी छुईमुई हुई, फिर वह फूली हुई बनिए की लड़की-सी पति में ही धसती चली गई। पहाड़ी नदी के बाँध टूटना ही चाहते थे कि लहनासिंह लड़खड़ा गया और गिरते-गिरते बचा। सकुचायी-सी, शर्मायी-सी गुलाबदेई ने लहनासिंह को चिकुटी काटते हुए कहा - बस... और आँखों ही आँखों में बिहारी की नायिका के समान भरे मान में मानो कहा - कबाड़ी के सामने भी कोई लहँगा पसारेगी?
'हारे को हरिनाम, गुलाबदेई। मेरी प्राणप्‍यारी। मैं हारा नहीं हूँ। सुनो... मर्द और कर्द कभी खुन्‍ने नहीं होते गुलाबो... और चीन की लड़ाई ने तो मेरी धार और तेज कर दी है।' लहनासिंह तन कर खड़ा हो गया था! गुलाबदेई सरसों-सी खिल आई। मानो लहनासिंह उसे कल ही ब्‍याह कर लाया हो।
माँ रसोई करने चली गई थी। तीन साल बाद बेटा आया था। उसके कानों में बैसाखियों की खड़खड़ाहट अब भी सुनाई दे रही थी। भगवती से कितनी मन्‍नतें मानी थीं। वह शिवजी के मंदिर में भी हो आई थी! आखिर देवी-देवता चाहें तो वह सही सलामत भी आ सकता था परंतु अब तो वह साक्षात सामने था। फिर भी माँ को किसी चमत्‍कार की आशा थी, वह सीडूं बाबा से पुच्‍छ लेने जाएगी। फिर देगची में कड़छी हिलाते हुए सोचने लगी... देश के लिए एक टाँग गँवा दी तो क्‍या हुआ। उसकी छाती फूल गई। बेटे ने माँ के दूध की लाज रखी थी।
'चाचा, तुम आ गए!'
'हाँ बेटा।' लहनासिंह ने उसे अंक में भरते हुए कहा।
'चाचा... इतने दिन कहाँ थे?'
'बेटा मैं लाम पर था। चीन से युद्ध हो रहा था न...'
'चीन कहाँ है?' मासूमियत से बालक ने पूछा!
'हिमालय के उस पार।'
'मुझे भी ले चलोगे न?'
'अब मैं नहीं जाऊँगा। फौज से मेरी छुट्टी हो गई!' कुछ सोच कर उसने फिर कहा - 'बेटा, तुम बड़े हो जाओगे तो फौज में भर्ती हो जाना।'
'मैं भी चीनियों को मार गिराऊँगा! लेकिन चाचा क्‍या मेरी भी टाँग कट जाएगी?'
'धत तेरी! ऐसा नहीं बोलते। टाँग कटे दुश्‍मनों की।' फिर हीरे ने जेब में आम की गुठली से बनाई पीपनी निकाली और बजाने लगा। बरसात में आम की गुठलियाँ उग आती हैं, तो बच्‍चे उस पौधों को उखाड़ कर गुइली में से गिट्टक निकाल कर बजाने लगते हैं। बड़े-बूढ़े खौफ दिखाते है। कि गुठलियों में साँप के बच्‍चे होते हैं परंतु इन बंदरों को कौन समझाए... आदमी के पूर्वज जो ठ‍हरे !
'तुम मदरसे जाते हो?'
'हूँ... लेकिन मौलवी की लंबी दाढ़ी से डर लगता है...'
'क्‍यों ?'
'दाढ़ी में उसका मुँह ही दिखायी नहीं देता...'
'तुम्‍हें मुँह से क्‍या लेना है। अच्‍छे बच्‍चे गुरुओं के बारे में ऐसी बात न‍हीं करते।'
'मेरा नाम तो अभी कच्‍चा है...'
'नाम कच्‍चा है या कच्‍ची में ही...'
'मैं पक्‍की में हो जाऊँगा लेकिन बड़ी माँ ने अधन्‍नी नही दी... फीस लगती है चाचा।' और वह पीपनी बजाता हुआ गयब हो गया।
लहनासिंह सोचने लगा... उमर कैसे ढल जाती है... पहाड़ी नदी-नाले मैदान तक पहुँचते-पहुँचते संयत हो जाते हैं... ढलती हुई उमर में वर्तमान के खिसकने और भविष्‍य के अनिश्‍चय घेर लेते हैं। चीन की लड़ाई में जख्मी होने पर जब अस्‍पताल में था... तो हर नर्स उसे आठ-नौ साल की सूबेदारनी दिखाई देती... सिस्‍टर नैन्‍सी से एक दिन उसने पूछा भी था - 'सिस्‍टर क्‍या कभी तुम आठ साल की थीं?'
'अरे बिना आठ की उमर पार किए मैं बाईस की कैसे हो सकती हूँ... तुम्‍हें कोई याद आ रहा है...
'हाँ... वह आठ साल की छोकरी... दही में नहाई हुई... बहार के फूलों-सी मुस्‍कराती हुई मेरी जिंदगी में आई थी... और फिर एकएक बिलुप्त हो गई... सूबेदारनी बन गई... कहते-कहते वह खो गया था!
'हवलदार... तुम परी-कथाओं में विश्‍वास रखते हो ?'
'परियों के पंख होते हैं न... वे उड़ कर जहाँ चाहें चली जाएँ... कल्‍पना ही तो जीवन है।'
परंतु तुम्‍हें तो शौर्य-मेडल मिला है।'
'अगर मेरी कल्‍पना में वह आठ वर्षिय कन्‍या न होती तो मुझे कभी शौर्य-मेडल न मिलता... मेरी प्रेरणा वही थी...
'तुमने विवाह नहीं बनाया।' नैन्‍सी ने पूछा !
'विवाह तो बनाया... कनेर के फूल-सी लहलहाती मेरी पत्‍नी है... एक बेटा है... और मेरी बूढ़ी माँ है...'
'तो फिर परियों की कल्‍पना... आठ वर्ष की कन्या का ध्‍यान...'
'हाँ, सिस्‍टर... मैंने 35 साल पहले उस कन्‍या को देखा था... फिर वह ऐसे गायब हुई जैसे कुरली बरसात के बाद कही अदृश्‍य हो जाती है... और मैं निपट... अकेला... नैन्‍सी चली गई थी। वह सोचता रहा था - स्‍वप्‍न में सफेद कौओं का दिखाई देना शुभ लक्षण है या अशुभ का प्रतीक... अस्‍पताल में अर्ध-निमीलित आँखों में अनेक देवता आते... कभी उसे लगता कि फनियर नाग ने उसे कमर से कस लिया है...शायद यह नपुंसकता का संकेत न हो... वह दहल जाता... माँ... पत्‍नी... और हीरा... कैसे होंगे... गाँव में वैसे तो ऐसा कुछ नहीं जो भय पैदा करे... लेकिन तीन साल तो बहुत होते हैं... वे कैसे रहती होंगी... युद्ध में तो तनख्वाह भी न‍हीं पहुँचती होगी... फिर उसे ध्‍यान आया कि जब वह चलने लगा था तो माँ ने कहा था - बेटा... हमारी चिंता नहीं करना। आँगन में पहा‍ड़ि‍ए का बास हमारी रक्षा करेगा... फिर उसे ध्‍यान आया... कई बार पहाड़ि‍या नाराज हो जाए तो घर को उलटा-पुलटा कर देता है। आप चावल की बोरी को रखें... वह अचानक खुल जाएगी और चावलों का ढेर लग जाएगा। कभी पहाड़ि‍या पशुओं को खोल देगा... अरे नहीं... पहाड़ि‍या तो देवता होता है, जो घर-परिवार की रक्षा करता है। वह आश्‍वस्‍त हो गया था।
'मुन्‍नुआ, तू कुथी चला गिया था?'
'माँ फौजी तो हुक्‍म का गुलाम ओता है।'
'फिरकू तां जर्मन की लड़ाई से वापस आ गया था... उसका तो कोई अंग-भंग वी नईं हुआ था...और तू पता नहीं कहाँ-कहाँ भटकता रहा... तिझो घरे दी वी याद नी आई।'
'अम्‍मा... फिरकू तो फिरकी की भाँति घूम गया होगा लेकिन मैं तो वीर माँ का सपूत हूँ... उस पहाड़ी माँ का जो स्‍वयं बेटे को युद्धभूमि में तिलक लगा कर भेजती है... बहाना बना कर लौटना राजपूत को शोभा नही देता...'
'हाँ, सो तो तमगे से देख रेई हूँ लेकि‍न...'
'लेकिन क्‍या अम्‍मा... तुम चुप क्‍यों हो गई।'
'बुलाबदेई तो वीरांगना है... उसे तो गर्व होना चाहिए...'
'हाँ...बेटा...फौजी की औरत तो तमगों के सहारे ही जीती है लेकिन...'
'लेकिन क्‍या अम्‍मा... कुछ तो बोलो!'
'उसका हाल तो बेहाल रहा... आदमी के बिना औरत अधूरी है... और फौजी की औरत पर तो कितणी उँगलियाँ उठती हैं... तुम क्‍या जानो।' तुम तो नौल के नौलाई रेअ।
'हूँ !'
'क्‍या तमगे तुम्‍हारी दूसरी टाँग वापस ला सकते हैं? और तीन साल से सरकार ने सुध-बुध ही कहाँ ली...'
लहनासिंह के पास कोई जवाब नहीं था। सूबेदारनी ने किस अनुनय-विनय से उसे बींध लिया था... हजारासिंह बोधा सिंह की रक्षा करके उसने कौन-सा मोर्चा मार लिया था... वह युद्ध-भूमि में तड़प रहा था और रैड-क्रास वैन बाप-बेटे को ले कर चली गई थी... उसने जो कहा था मैंने कर दिया... सोच कर फूल उठा लेकिन गुलाबदेई के यौवन का अंधड़ कैसे निकला होगा... लोग कहते होंगे... बरसाती नाले-सा अंधड़ आया और वह झरबेरी-सी बिछ गई थी... तूफान में दबी... सहमी सी लँगड़े खरगोश-सी... नहीं... लँगड़ी वह कहाँ है... लँगड़ा तो लहनासिंह आया है... चीन में नैन्‍सी से बतियाता... खिलखिलाता....
अम्‍मा फिर रसोई में चली गई थी! गुलाबदेई उसकी लकड़ी की टाँग को सहला रही थी... शायद उसमें स्‍पंदन पैदा हो जाए... शायद वह फिर दहाड़ने लगे... तभी लहनासिंह ने कहा था, 'गुलाबो... यह नहीं दूसरी टाँग...'
वह दोनों टाँगों को दबाने लगी थी... और अश्रुधारा उसके मुख को धो रही थी... वह फिर बोला - 'गुलाबो... तुम्‍हें मेरे अपंग होने का दुख है?'
'नहीं तो!'
'फिर रो क्‍यों रही हो...'
'फौजी की बीबी रोए तो भी लोग हँसते हैं और अगर हँसे तो भी व्‍यंग्‍य-वाण छोड़ते हैं... वह तो जैसे लावरिस औरत हो... वह फूट पड़ी थी !'
'मैं तो सदा तुम्‍हारे पास था!'
'अच्‍छा!' अब जरा वह खिलखिलाई।
'हीरे का हीरा पा कर भी तुम बेबस रहीं।'

'और तुम्‍हारे पास क्‍या था?'
'तुम!'

'नहीं... कोई मीम तुम्‍हें सुलाती होगी... और तुम मोम-से पिघल जाते होओगे... मर्द होते ही ऐसे हैं !'
'जरा खुल कर कहो न...'
'गोरी-चिट्टी मीम देखी नहीं कि लट्टू हो गए...'
'तुम्‍हें शंका है ?'
'हूँ... तभी तो इतने साल सुध नहीं ली...'
'मैं तो तुम्‍हारे पास था हमेशा... हमेशा...'
'और वह सूबेदारनी कौन थी?'
'क्‍या मतलब?'
'तुम अब भी माँ से कह रहे थे... उसने कहा था... जो कहा था... मैंने पूरा कर दिया...'
'हाँ... मैं जो कर सकता था... वह कर दिया...'
'लेकिन युद्ध में सूबेदारनी कहाँ से आ गई?'
'वह कल्‍पना थी।'
'तो क्‍या गुलाबो मर गई थी... मैं कल्‍पना में भी याद नहीं आई।'
'मैं तुम्‍हें उसे मिलाने ले चलूँगा।'
'हूँ... मिलोगे खुद और बहाना मेरा... फौजिया तुद घरे नी औणा था !'
'मैं अब चला जाता हूँ...'
'मेरे लिए तो तुम कब के जा चुके थे... और आ कर भी कहाँ आ पाए...'
'गुलाबो... तुम भूल कर रही हो... मैंने कहा था न... मर्द और कर्द कभी खुन्‍ने नहीं होते... उन्‍हें चलाना आना चाहिए...'
'अच्‍छा... अच्‍छा... छोड़ो भी न अब... हीरा आ जाएगा...'
और दोनों ओबरी में चले गए। सदियों बाद जो मिले थे। छोटे छोटे सुख मनोमालिन्‍य को धो डालते हैं और एक-दूसरे के प्रति आश्‍वस्ति जीवन का आधार बनाती है - एक मृगतृष्‍णा का पालन दांपत्‍य-जीवन को हरा-भरा बना देता है... गुलाबदेई लहलहाने लगी थी... और आँगन में अचानक धूप खिल आई थी।

अर्जुन का संदेह

स्तिनापुर मैं गुरु द्रोणाचार्य के पास पांडुपुत्र और दुर्योधन आदि विद्या अध्ययन कर रहे थे, तब की बात है। एक दिन संध्याकालीन बेला में वे लोग शुद्ध वायु का सेवन कर रहे थे तभी अर्जुन ने कर्ण से प्रश्न किया, "हे कर्ण! बताओ, युद्ध श्रैष्ठ है या शांति?"
(यह महाभारत की एक उपकथा है। प्रामाणिक है। कपोल-कल्पित नहीं।)
कर्ण ने कहा, ''शाति ही श्रेष्ठ है।"
अर्जुन ने पूछा, "ऐसा क्यों? क्या कारण है? ''
कर्ण बताने लगा, "हे अर्जुन! युद्ध हो तो मैं तुमसे लडूंगा। तुम्हें कष्ट होगा। मैं तो दयालु हूँ । तुम्हारा कष्ट मुझसे सहा न जाएगा। दोनों को दुखी होना पड़ेगा। इसलिए शांति ही श्रेष्ठ है।''
"हे कर्ण! मैंने यह प्रश्न अपने दोनों के संदर्भ में नहीं पूछा। सामान्य रूप से पूछा था कि युद्ध अच्छा है या शांति?" अर्जुन ने कहा ।
''सार्वजनिक बातों में मुझे कोई रुचि नहीं," कर्ण ने कहा।
अर्जुन ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि इस व्यक्ति को मार डालना है। अर्जुन ने गुरु द्रौणाचार्य से इसी प्रश्न को दुहराया ।
द्रोणाचार्य बोले, "युद्ध ही अच्छा है।"
पार्थ ने पूछा, "कैसे?"
द्रोणाचार्य ने कहा, "हे विजया! युद्ध में धन की प्राप्ति होगी, कीर्ति मिलेगी । नहीं तो वीरगति मिलेगी। शांति में तो यह सब कुछ अनिश्चित है।"
बाद में अर्जुन भीष्म पितामह से मिला । उनसे पूछा, "पितामह! युद्ध अच्छा है या शांति?"
इस पर गंगापुत्र ने बताया, "वत्स अर्जुन! शांति ही श्रेष्ट है । युद्ध से क्षत्रिय कुल की बढ़ाई और शाति से संसार को महत्ता प्राप्त होगी।"
अर्जुन बोना, "आपका कहना न्यायसंगत नहीं लगता ।'' पितामह बोले, "वत्स! पहले कारण बताओ, बाद में अपना निश्चय सुनाओ।"
"पितामह ! शांति में कर्ण श्रेष्ठ और मैं निकृष्ट हूँ । युद्ध हो तो सचाई प्रकट हो जायेगी।"
इस पर पितामह भीष्म ने कहा, "वत्स! धर्म हमेशा उन्नत रहेगा । युद्ध हो या शांति, विजय धर्म की ही होगी । इसलिए मन से क्रोधादि को दूर करके शांति की कामना करो। समस्त मानव तुम्हारे भ्रातृतुल्य हैं । मानव को परस्पर प्रेम से रहना चाहिए । प्रेम ही तारकमंत्र है । त्रिकाल की बात बताता हूँ । प्रेम ही तारक है।'' पितामह के नयनों से दो अश्रु-बिंदु ढुलक पड़े।
कुछ दिनों के उपरांत वेदब्यास मुनि हस्तिनापुर आये। अर्जुन ने उनके पास जाकर अपना प्रश्न दुहराया। मुनि ने कहा, ''दोनों ही अच्छे हैं। समय के अनुरूप इन्हें अपनाना है।"
कई वर्षो के उपरांत वनवास के समय दुर्योधन के पास दूत भेजने के पहले अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, "हे कृष्ण! बताआ, युद्ध अच्छा है या शांति?''
कृष्ण ने कहा, "अब तो शांति ही भली लगती है। इसीलिए शांति का दूत बनकर मैं हस्तिनापुर जा रहा हूँ ।

सौदागर और कप्तान

एक सौदागर समुद्री यात्रा कर रहा था, एक रोज उसने जहाज के कप्‍तान से पूछा, ''कैसी मौत से तुम्‍हारे बाप मरे?"
कप्‍तान ने कहा, ''जनाब, मेरे पिता, मेरे दादा और मेरे परदादा समन्दर में डूब मरे।''
सौदागर ने कहा, ''तो बार-बार समुद्र की यात्रा करते हुए तुम्‍हें समन्दर में डूबकर मरने का खौफ़ नहीं होता?"
''बिलकुल नहीं,'' कप्‍तान ने कहा, ''जनाब, कृपा करके बतलाइए कि आपके पिता, दादा और परदादा किस मौत के घाट उतरे?"
सौदागर ने कहा, ''जैसे दूसरे लोग मरते हैं, वे पलँग पर सुख की मौत मरे।''
कप्‍तान ने जवाब दिया, ''तो आपको पलंग पर लेटने का‍ जितना खौफ़ होना चाहिए, उससे ज्‍यादा मुझे समुद्र में जाने का नहीं।''
विपत्ति का अभ्‍यास पड़ जाने पर वह हमारे लिए रोजमर्रा बन जाती है।

The First Snow

The snow! the snow! Whoop! Hooray! Ho! Ho! 
Plunge in the deep drifts and toss it up so! 
    Rollick and roll in the feathery fleece 
    Plucked out of the breasts of the marvelous geese 
By the little old woman who lives in the sky; 
Have ever you seen her? No, neither have I!

Three Little Kittens

Three little kittens, they lost their mittens,
And they began to cry:
"O mother dear,
We fear, we fear,
That we have lost our mittens."
What?  Lost your mittens!
You naughty kittens!
Then you shall have no pie.
"Mee-ow, mee-ow, mee-ow."
No, you shall have not pie. 

Three little kittens, they found their mittens,
And they began to cry:
"O mother dear,
See here, see here!
See! we have found our mittens."
Put on your mittens
You silly kittens,
And you may have some pie.
"Purr-r, purr-r, purr-r,"
O let us have the pie.

The three little kittens put on their mittens,
And soon ate up the pie;
"O mother dear,
We greatly fear,
Our mittens we have soiled."
What?  Soiled your mittens!
You naughty kittens!
Then they began to sigh,
"Mee-ow, mee-ow, mee-ow."

The three little kittens, they washed their mittens,
And hung them out to dry;
"O mother dear,
Do you not hear,
That we have washed our mittens?"
What? Washed your mittens!
Oh, you're good kittens.
But I smell a mouse close by;
Hush! hush! "Mee-ow, mee-ow.
We smell a mouse close by,

Easter Bunny

There once was a nice Easter bunny 
He hopped around looking very funny
He injured his leg 
While hiding an egg 
Then he didn't feel very sunny

Five Busy Honey Bees

Five busy honey bees were resting in the sun.
The first one said, "Let us have some fun."
The second one said, "Where shall it be?"
The third one said, "In the honey tree."
The fourth one said, "Let's make some honey sweet."
The fifth one said, "With pollen on our feet."
The five little busy bees sang their buzzing tune,
As they worked in the beehive all that afternoon.
Bzzzzzz! Bzzzzzz! Bzzzzzz! Bzzzzzz! Bzzzzzz!

A boy and his dad

A boy and his dad on a fishing trip-
  There is a glorious fellowship!
Father and son and the open sky,
  And the white clouds lazily drifting by,
And the laughing stream as it runs along
  With the clicking reel like a martial song,
And the father teaching the youngster gay
  How to land a fish in the sportsman's way.

I fancy I hear them talking there
  In an open boat, and speech is fair;
And the boy is learning the ways of men
  From the finest man in his youthful ken.
Kings, to youngster, cannot compare
  With the gentle father who's with him there.
And the greatest mind of the human race
  Not for one minute could take his place.

Which is happier, man or boy?
  The soul of the father is steeped in joy,
For he's finding out, to his heart's delight,
  That his son is fit for the future fight.
He is learning the glorious depths of him.
  And the thoughts he thinks and his every whim,
And he shall discover, when night comes on,
  How close he has grown to his little son.

Oh, I envy them, as I see them there
  Under the sky in the open air,
For out of the the old, old long-ago
  Come the summer days that I used to know,
When I learned life's truth from my father's lips
  As I shared the joy of his fishing trips-
A boy and his dad on a fishing trip-
  Builders of life's companionship!