Saturday 8 September 2018

सारे रिश्ते टूट गए

एक बार एक बहुत सुन्दर लड़की थी | वह इतनी सुन्दर थी जो भी उसे देखता , देखता ही रह जाता | पर उसे गुस्सा बहुत आता था | गुस्से में वह किसी से कुछ भी कह देती | घर के सबलोग उसकी इस आदत से बहुत परेशां थे | एक बार उसके पिता ने उसे सबक सिखाने की सोचा | उसके पिता ने उसे कुछ कील और हतोड़ा दिया और कहा एक महीने तक हम एक एक्टिविटी करेंगे जिसमे तुम्हे बस एक महीने तक गुस्सा कम करना है उसके बाद तुम चाहो जितना गुस्सा कर सकती हो  | और जब भी तुम्हे गुस्सा आये और तुम किसी से बुरी तरह बोल दो तो एक कील दीवार में लगा देना | और कोशिश करनी है गुस्सा कम करने की , लड़की  तैयार हो गयी | उसे जब भी गुस्सा आता और वह किसी को कुछ बोल देती तो एक कील दिवार में लगा देती | पहले दिन उसने दीवार में ३० कील लगा दी | पर धीरे  धीरे दिवार में लगने वाली कील काम होने लगी | १५ ही दिन में उस लड़की ने सबसे बुरी तरह बोलना काम कर दिया | अब उसके पिता ने उससे कहा की अगर तुम एक बार भी गुस्सा का करना होने पर किसी से बुरी तरह न बोलो तो अपने द्वारा लगायी हुई कील में से एक कील निकाल देना | लड़की ने वैसे ही किया | १ महीने के अंत तक दीवार से सब कील निकल गयी | लड़की बहुत खुश हुई की वो इस गेम में जीत गयी | अर अपने पिता जी से कहने लगी
देखिये सब कील दीवार से निकल गयी |
उसके पिता ने कहा दीवार से कील तो निकल गयी पर क्या दीवार पहले जैसी सुन्दर दिख रही है | दीवार में जगह जगह निशान पढ़ गए हैं |
पिता ने अपनी बेटी को समझाया इसी तरह जब तुम किसी पर गुस्सा करती हो तो तुम्हारे रिश्तो में भी ख़राब निशान छूट ही जाते है | और एक दिन यही निशान रिस्तो को भी ख़राब कर देते हैं लड़की के बात समझ में आ गयी और उसने उस दिन से गुस्सा करना बहुत कम कर दिया 

गुरुदक्षिणा

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए |गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे-‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे |सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले-‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा |’
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे |लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं ,उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया |वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे |


अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था | अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके |
वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी|
पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ  नहीं  दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी |अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये |गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रो,ले आये गुरुदक्षिणा ?’तीनों ने सर झुका लिया |गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव,हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये |हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं
’गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो ?प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो |’तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये |
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था,अचानक बड़े उत्साह से बोला-‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं |आप का  संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है |
गुरु जी भी तुरंत ही बोले-‘हाँ, पुत्र,मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना,सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके |
दूसरे,यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम  निर्विक्षेप,स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था |
अंततः,मैं यही कहना चाहती हूँ कि यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी |सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है |वस्तुतः,हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’ पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है |

चिड़िया की परेशानी कहानी

एक चिड़िया थी वह बहुत उच उड़ती , इधर उधर चहचहाती रहती | कभी इस टहनी पर कभी उस टहनी पर फुदकती रहती |पर उस चिड़िया की एक आदत थी वह जो भी दिन में उसके साथ होता अच्छा या बुरा उतने पत्थर अपने पास पोटली में रख लेती और अकसर उन पत्थरो को पोटली से निकाल कर देखती अच्छे  पत्थरो को देखकर बीते दिनों में हुई अच्छी बातो को याद करके खुश होती | और खराब पत्थरो को देखकर दुखी होती |ऐसा रोज़ करती | रोज़ पत्थर इकठा करने से उसकी पोटली दिन प्रतिदिन भारी होती जा रही थी | थोड़े दिन बाद उसे भरी पोटली के साथ उड़ने में दिक्कत होने लगी | पर  उसे समझ नहीं आ रहा था की वह उठ क्यों नहीं पा रही |
कुछ समय और बीता, पोटली और भारी होती जा रही थी | अब तो उसका जमीन पर चलना भी मुश्किल हो रहा था | और एक दिन ऐसा आया की वह खाने पीने का इंतज़ाम भी नहीं कर पाती अपने लिए और अपने पत्थरो के बोझ तले मर गयी .